Sunday, August 28, 2011

शायद भारत जागा है

वो कहते हैं, कुछ हुअा नहीं, कुछ बना नहीं, कुछ मिटा नहीं।
सौ साल पुरानी अादत से, एक कागज़ बिलकुल बड़ा नहीं।
इस काली भारी धरती को, क्या टाँगे पतला धागा है?
पर जाने कयूँ ये लगता है, कि शायद भारत जागा है।

पहले भी अाँधी अाई है, पहले भी तू्फाँ अाया है।
किसे याद रहा, क्या हुअा कहीं? किस ओर उजाला छाया है?
एक अरब जगाने को मूरख, क्या खेल समझ तू भागा है?
ना जाने फिर क्यूँ लगता है, कि शायद भारत जागा है।

वो कहते हैं कोई और नहीं हम में ही रावण रहता है।
कैसे ये फिर तू सोच रहा, कानून के काबू अाएगा?
हर रावण में मुझे लगता है, कहीं राम भी बस कर रहता है।
वो उसके काबू अाया था, वो उसी के काबू अाएगा।

चल कदम बढ़ा, कुछ ज़ोर लागा, अभी अौर बहुत कुछ बाकी है।
अब "चलता है" को जाने दे, "कुछ हुअा नहीं" को ताने दे।
अरे मान अगर कुछ ना बदला, तू खुद को बदल के देख ज़रा।
न गवा हाथ से ये मौका, कि शायद भारत जागा है।

माना ये रस्ता लंबा है, माना ये पूरा तोड़ नही।
पर क्यूँ ना अब कुछ अलग करें, अब क्यूँ ना हम विष्वास करें।
कया पता कि ये इतिहास कहीं, कोई अाज बदलने वाला है।
हो सकता है, जो दिल कहता, कि शायद भारत जागा है।

शायद भारत जागा है... हँा शायद भारत जागा है।